भला हुआ था बेगमपेट के मोची से दो जोड़ी जूते उठा लाए थे। कुछ कपड़े सूट्केस में भर कर और कुछ बदन पर लाद कर पगडंडियाँ नापने यहाँ आ धमके थे। दिन सर्द था, मगर सुहाना था। पहाड़ों पर शाम की अवधि अधिक नहीं होती। दोपहर के बाद रात! मौसम का मिज़ाज बदला। अगले दिन धूप की जगह बर्फ़ बरस रही थी। पगडंडियों के मुहाने बंद हुए। मोटरों की पो-पो भी थमी। क़दमों ने चलना बंद कर दिया, फिसलना शुरू कर दिया। ओल्ड मौंक का दौर भी ख़ूब चला। बर्फ़ पर दौड़ते, फिसलते, गिरते और चीख़ते! 120 रुपए के मौजे कब तक गर्मी संभाल पाते? सब गीला हुआ। सब मैला हुआ। घर की याद आ गयी थी। बिजली-पानी के अभाव से मन व्याकुल हुआ। घर की जानिब निकले वही दो जोड़ी जूतों और मेले कुचैले कपड़ों के साथ।
पहाड़ की गोद में-एक संस्मरण
